जौनपुर में उत्तराखंड की ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहर मौण मेला दो साल के कोरोना काल के बाद एक बार फिर रविवार को आयोजित हुआ। मौण मेले को लेकर ग्रामीणों में खास उत्साह है। ग्रामीण अपने पारंपरिक वाद्ययंत्रों और औजरों के साथ अगलाड़ नदीं में मछलियों को पकड़ने के उतरेगे।मेले से पहले यहां अगलाड़ नदी में टिमरू के छाल से निर्मित पाउडर डाला जाता है, जिससे मछलियां कुछ देर के लिए बेहोश हो जाती हैं। इसके बाद उन्हें पकड़ा जाता है। हजारों की संख्या में यहां ग्रामीण मछली पकड़ने के अपने पारंपरिक औजारों के साथ उतरे।
मानसून की शुरूआत में अगलाड़ नदी में जून के अंतिम सप्ताह में मछली मारने का सामूहिक मौण मेला मनाया जाता है।क्षेत्र के हजारों की संख्या में बच्चे, युवा और बुजुर्ग नदी की धारा के साथ मछलियां पकड़ने उतर जाते हैं। खास बात यह है कि इस मेले में पर्यावरण संरक्षण का भी ध्यान रखा जाता है। इस दौरान ग्रामीण मछलियों को अपने कुण्डियाड़ा, फटियाड़ा, जाल तथा हाथों से पकड़ते हैं, जो मछलियां पकड़ में नहीं आ पाती हैं, वह बाद में ताजे पानी में जीवित हो जाती हैं
स्थानीय ग्रामीणो ने बताया की इस ऐतिहासिक त्योहार में टिमरू का पाउडर डालने की बारी हर साल का जिम्मा सिलवाड़, लालूर, अठज्यूला और छैजूला पट्टियों का होता है परन्तु इस साल यह काम लालूर पट्टी के देवन, घंसी, सड़कसारी, मिरियागांव, छानी, टिकरी, ढ़करोल और सल्टवाड़ी गाव कर रहे हैं। जहां के ग्रामीण पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ पाउडर लेकर अगलाड़ नदी के पटाल तोक के मौण कोट से डाला गया। देखते ही देखते नहीं के तीन किमी क्षेत्र में हजारों की संख्या में ग्रामीण पारंपरिक उपकरणों से मछलियां पकड़ने लगे। मालूम हो कि टिमरू का पाउडर मछलियों को बेहोष कर देता है जिसके कारण मछलियां आसानी से पकडी जाती हैं।
मछली को मानते है प्रसाद
मेले में सैकड़ों किलो मछलियां पकड़ी जाती है जिसे ग्रामीण प्रसाद स्वरूप घर ले जाते हैं व घर में बनाकर मेहमानों को परोसते हैं। वहीं मेले में पारंपरिक लोक नृत्य भी किया जाता है जो ढोल दमाउ की थाप पर होता है
देश विदेश के पर्यटक भी मेले में करते है प्रतिभाग
बड़ी संख्या में देषी विदेषी पर्यटक भी इस मेले को देखने आते है। यह मेला पूरे भारत में अपने आप अलग किस्म का मेला है जिसका उददेष्य नदी व पर्यावरण को संरक्षित करना है। ताकि नदी की सफाई हो सके व मछलियों के प्रजजन में मदद मिल सके।
जल वैज्ञानिकों के राय
जल वैज्ञानिकों का कहना है कि टिमरू का पावडर जल पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाता है, मात्र कुछ समय के लिए मछलियां बेहोश हो जाती है और इस दौरान ग्रामीण मछलियों को अपने कुण्डियाड़ा, फटियाड़ा, जाल तथा हाथों से पकड़ते हैं। जो मछलियां पकड़ में नहीं आ पाती हैं वह बाद में ताजे पानी में जीवित हो जाती हैं। वहीं हजारों की सं या में जब लोग नदी की धारा में चलते हैं तो नदी के तल में जमा काई और गंदगी साफ होकर पानी में बह जाती है और मौण मेला होने के बाद नदी बिल्कुल साफ नजर आती है।
मौण मेला का महत्व
बता दें कि इस ऐतिहासिक मेले का शुभारंभ 1866 में तत्कालीन टिहरी नरेश ने किया था। तब से जौनपुर में निरंतर इस मेले का आयोजन किया जा रहा है। मौण मेला राजा के शासन काल से मनाया जाता है और क्षेत्र के बुजुर्गों का कहना है कि इसमें टिहरी नरेश स्वयं अपने लाव लश्कर एवं रानियों के साथ मौजूद रहा करते थे। मौण मेले में सुरक्षा की दृष्टि से राजा के प्रतिनिधि उपस्थित रहते थे। लेकिन सामंतशाही के पतन के बाद सुरक्षा का जिमा स्वयं ग्रामीण उठाते हैं और किसी भी प्रकार का विवाद होने पर क्षेत्र के लोग स्वयं मिलकर मामले को सुलझाते हैं।